भारत का गाजा संघर्ष विराम प्रस्ताव मतदान से अलग रहना पंरपरा से विश्वासघात : कांग्रेस

नई दिल्ली। India, Gaza ceasefire, proposal, vote, Congress, भारत , गाजा संघर्ष विराम, प्रस्ताव, मतदान ,कांग्रेस
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे, पार्टी महासचिव के सी वेणुगोपाल, प्रियंका गांधी वाड्रा और संचार विभाग के प्रमुख पवन खेड़ा ने शनिवार को यहां कहा कि भारत का यह रुख गुटनिरपेक्षता और नैतिक कूटनीति की हमारी लम्बी परंपरा के विरुद्ध है। कांगेस नेताओं ने कहा कि भारत को न्याय के लिए अपनी आवाज पुनः बुलंद करके सत्य और अहिंसा के लिए निडरता से खड़ा होना होगा।
कांग्रेस नेताओं ने यह प्रतिक्रिया 12 जून को संयुक्त राष्ट्र में गाजा संघर्ष विराम पर मतदान से दूर रहने के भारत के निर्णय पर दी है। उन्होंने इस निर्णय को सरकार की नैतिक कूटनीतिक विफलता, विदेशनीति में गड़बड़ी और सिद्धांतों के विपरीत कदम करार दिया है।
खरगे ने कहा,“अब यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि हमारी विदेश नीति में गड़बड़ियां हो रही हैं। शायद, प्रधानमंत्री मोदी को अब अपने विदेश मंत्री की बार-बार की गई गलतियों पर विचार करना चाहिए और कुछ जवाबदेही तय की जानी चाहिए। गाजा में संघर्ष विराम को लेकर संयुक्त राष्ट्र आम सभा के प्रस्ताव के पक्ष में 149 देशों ने मतदान किया। भारत उन 19 देशों में से एक था, जिन्होंने मतदान में भाग नहीं लिया। इस कदम से हम वस्तुतः अलग-थलग पड़ गए हैं। आठ अक्टूबर 2023 को व्यापक और भयावह मानवीय संकट के समय कांग्रेस ने इजरायल के लोगों पर हमास द्वारा किए गए क्रूर हमलों की निंदा की थी। अब सवाल है कि क्या हमने मध्य पूर्व और पश्चिम एशिया में संघर्ष विराम, शांति और संवाद की वकालत करने के अपने रुख को भारत ने छोड़ दिया है।”
उन्होंने कहा,“ भारत का यह रुख गुटनिरपेक्षता और नैतिक कूटनीति की हमारी लम्बी परंपरा का हिस्सा रहा है और हमने हमेशा अपने इस रुख के कारण ही अंतरराष्ट्रीय संघर्षों में न्याय और शांति का समर्थन किया है। कांग्रेस ने 19 अक्टूबर 2023 को भी तत्काल संघर्ष विराम और गाजा के संकटग्रस्त और बेदखल लोगों को मानवीय सहायता प्रदान करने का आह्वान किया था। जब क्षेत्र भीषण हिंसा, मानवीय तबाही और बढ़ती अस्थिरता का सामना कर रहा है, तो भारत चुपचाप या निष्क्रिय रूप से खड़ा नहीं रह सकता।”
वेणुगोपाल कि भारत हमेशा शांति,न्याय और मानवीय गरिमा के पक्ष में खड़ा रहा है लेकिन आज भारत दक्षिण एशिया, ब्रिक्स और एससीओ में एकमात्र देश है, जिसने गाजा में संघर्ष विराम की मांग करने वाले संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव पर अपना पक्ष नहीं रखा। इस संघर्ष में 60,000 लोग मारे गए हैं जिनमें ज्यादातर महिलाएं और बच्चे थे। हज़ारों लोग भूख से मर रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय सहायता रोक दी गई है जिससे एक मानवीय तबाही सामने आ रही है।
उन्होंने पूछा कि भारत को बताना चाहिए कि क्या उसने युद्ध, नरसंहार और न्याय के खिलाफ़ अपने सैद्धांतिक रुख को त्याग दिया है। विदेश मंत्रालय को स्पष्ट करना चाहिए कि पिछले छह महीनों में ऐसा क्या बदल गया है जिसके कारण भारत संघर्ष विराम का समर्थन करने से दूर रहने लगा है। हम जानते हैं कि यह सरकार नेहरू की विरासत का बहुत कम सम्मान करती है लेकिन फ़लिस्तीन पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सैद्धांतिक रुख़ को भी क्या अब त्याग दिया गया है। भारत लंबे समय से पश्चिम एशिया में युद्ध विराम, शांति और संवाद के लिए एक सैद्धांतिक आवाज़ रहा है।
वाड्रा ने इसे निराशाजनक निर्णय बताया और कहा,“सरकार ने गाजा में नागरिकों की सुरक्षा और कानूनी तथा मानवीय दायित्वों को पूरा करने के लिए संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव पर विचार न करने का फैसला करके हमारी उपनिवेशवाद विरोधी विरासत से दुखद उलटफेर किया है।
खेड़ा ने भी सरकार को आड़े हाथ लिया और कहा कि भारत का 12 जून को संयुक्त राष्ट्र में गाजा संघर्ष विराम पर मतदान से दूर रहना एक चौंका देने वाला कृत्य है। यह भारत की उपनिवेशवाद विरोधी विरासत और स्वतंत्रता के मूल्यों के साथ विश्वासघात है। भारत ने फलिस्तीन के लिए मजबूती से खड़ा होकर 1974 में फलिस्तीन मुक्ति संगठन को मान्यता देने वाला पहला गैर-अरब देश बना, 1983 में नयी दिल्ली में सातवें गुटनिरपेक्ष आंदोलन शिखर सम्मेलन में यासिर अराफात को आमंत्रित किया और फिर 1988 में औपचारिक रूप से फलिस्तीनी राज्य को मान्यता दी। देश ने न्याय के लिए रणनीति के तौर पर नहीं, बल्कि सिद्धांत के तौर पर खड़े होने का चुनाव किया था। लेकिन आज, वह गौरवशाली विरासत मलबे में तब्दील हो चुकी है।
उन्होंने कहा,“ भारत आज तेल अवीव के आगे झुक गया है और उन सिद्धांतों को छोड़ चुका है जिन पर कभी हमने दुनिया की नैतिक मूल्यों का दिशा देने वाला देश बनाया था। दिसंबर 2024 में गाजा में स्थायी संघर्ष विराम के पक्ष में मतदान से भी ज्यादा डरपोक पलटी इस मतदान से दूर रहना है, जिससे यह साबित होता है कि मोदी सरकार सिद्धांत की रक्षा के लिए खड़ी नहीं होती है।”
उनका कहना था कि वैश्विक नेतृत्व चुप्पी और चापलूसी पर नहीं बनता। अगर वैश्विक मंच पर अपनी आवाज़ को महत्व दिलवाना है तो सबसे जरूरी वक्त पर बोलने का साहस दिखाना होगा।